Thursday 3 August 2017

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति -डॉक्टर प्रीतिप्रभा गोयल, राजस्थIनी ग्रंथागार, जोधपुर, पृष्ठ ३७५, मूल्य रुपये ४००/= प्रकाशन जुलाई 2000
समीक्षा (Review):
किसी भी राष्ट्र के निवासियों के लिए, उनके जीवन और रहन सहन की परंपरा ही संस्कृति है और इनके लिए अपनी संस्कृति का बड़ा महत्व है। इसी क्रम में भारतीय संस्कृति के रूप में हमारी परंपरा की , जो सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही है , अपनी ही शान है। प्रत्येक भारतीय को इस पर गर्व है और हो भी क्यों नहीं । हमारा नारा "मेरा भारत महान है ", ऐसी अनुपम संस्कृति की महानता का द्योतक है । संस्कृति के विभिन्न पहलू होते हैं और उन सभी का अलग अलग महत्व है ।भारतीय संस्कृति की ताकत इसी बात से आंकी जा सकती है कि अनेकों प्रतिकूल प्रभाव के प्रयासों के बावजूद ,भारतीय संस्कृति अडिग रही और इसमें कोई शक नहीं कि यह अडिग रहेगी ।
इस पुस्तक की लेखिका डॉक्टर प्रीतिप्रभा गोयल , जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के संस्कृत विभाग की सहाचार्या तथा निदेशिका के . ए्न. कॉलेज (सेवा निवृत ) हैं. इसमें कोई शक नहीं कि विद्वान लेखिका ने अपनी इस पुस्तक के १३ अध्यायों में भारतीय संस्कृति के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है ।
अध्याय एक में संस्कृति की परिभाषा से आरम्भ करते हुए . हमारे देश में व्याप्त एकता के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए, भारतीय संस्कृति की १५ विशेषताओं का उल्लेख किया गया है , जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है विश्व बंधुत्व की भावना। सभी संस्कृतियों में समाज का वर्णों में विभाजन किया गया है। भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था का वर्णन , अध्याय २ में किया गया है। सामान्तया वर्ण से , मनुष्य के गुणों का बोध होना चाहिए ।वर्णोत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत , इतिहास के विभिन्न कालों में वर्ण व्यवस्था और वर्णो के , विशेषाधिकार के बारे में इसमें चर्चा की गई है। अध्याय ३ का विषय है आश्रम व्यवस्था , जो भारतीय संस्कृति की एक अभूतपूर्व और प्राचीन परिकल्पना है । इस बारे में ऐतिहासिक क्रम बताते हुए , लेखिका ने चार आश्रमों के बारे में विस्तार से बताया है । संस्कार की किसी भी सभ्यता में ऐसी व्यवस्था नहीं है।
हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है संस्कारों का पालन । कुल १८ संस्कार बताये गए है जो पांच भागों में बांटे जा सकते हैं , जन्म से पूर्व के संस्कार, शिशु के संस्कार, शिक्षा सम्बन्धी संस्कार, विवाह , अंत्येष्टि । सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह का है। विवाह की आवश्यकता, अनिवार्यता , उद्देश्य ,विवाह के विभिन्न प्रकार , विवाह में चयन और निषेध आदि के बारे में अध्याय ४ में बताया गया है । अध्याय ५ में प्राचीन भारत में शिक्षा की स्थिति , प्रयोजन, विशेषताएं , शिक्षाकाल अवधि, शिक्षण प्रणाली , शिक्षण अवधि , शिष्य के कर्त्तव्य तथा गुरु शिष्य संबंधों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। किसी भी समाज में स्त्री और पुरुष का समान महत्व होता है ।स्त्री के बिना पुरुष अपूर्ण है ।प्राचीन भारत के विभिन्न कालों में नारी की स्थिति के बारे में अध्याय ६ में बताया गया है.
प्राचीन भारत में सामाजिक और धार्मिक दशा के बारे में अध्याय ७ में वर्णन किया गया है ।विभिन्न कालों में वर्ण, आश्रम, नारी का स्थान, आहार वसन और आभूषण, मनोरंजन, परिवार आदि के बारे में स्थिति का वर्णन किया गया है ।अध्याय ८ में प्राचीन भारत में आर्थिक और राजनैतिक जीवन के बारे में बताया गया है । विभिन्न कालों में जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक धन अर्जित करने के बारे में बताया गया है ।विभिन्न पहलुओं जैसे कृषि , पशुपालन, व्यापर, वाणिज्य, व्यवसाय एवं उद्योग, गृहनिर्माण , आवागमन के साधनों पर चर्चा की गई है, साथ ही राज्य के शासन के सम्बन्ध में, विभिन्न कालों की स्थिति , केंद्रीय शासन को विभागों में बाँटना , पदाधिकारियों की नियुक्ति , दंड व्यवस्था आदि के बारे में बताया गया है । अध्याय ९ में प्रमुख भारतीय धर्मों , जैसे बौद्ध धर्म , जैन धर्म, वैष्णव धर्म और शैव धर्म के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है. वांग्मय शीर्षक है अध्याय १० का ।प्राचीन भारतीय साहित्य का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है । वैदिक साहित्य को चार उपखंडों में बाँटा जा सकता है जिसमे चारों वेद , उपनिषद आदि शामिल हैं। लौकिक साहित्य में महाकाव्य , खण्डकाव्य , मुक्तक काव्य, कथा, आख्यायिका तथा निबंध शामिल है । मेघदूत, वासवदत्ता, कादंबरी, पंचतंत्र, हिपोदेश आदि प्रसिद्ध हैं।
भारतीय दर्शन के बारे में बताया गया है अध्याय ११ में । हालाँकि अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ विकसित हुई , परन्तु उनके मूल विषय लगभग एक जैसे हैं। इस अध्याय में न्यायदर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, मीमांसा दर्शन , वेदांत दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, चार्वाक दर्शन, पर चर्चा की गई है । अध्याय १२ में भारतीय कला की विशेषताएं बताई गई हैं और वैदिक युग, मौर्य युग, शुंग, कुषाण , साववाहन युग , गुप्त युग, मध्य युग में कला की स्थिति और विकास के बारे में विस्तार से बताया गया है । अंतिम अध्याय १३ में लिखा गया है कि किस तरह भारतीय संस्कृति भारत की सीमाओं को पार कर विभिन्न देशों में प्रसारित की गई जैसे श्री लंका , मध्य एशिया , चीन, कोरिया, जापान, फिलीपींस द्वीप , तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया , फ़नान, कंबुज, चंपा, मलाया द्वीप समूह , जावा, बाली, बोर्निओ, स्याम (थाईलैंड) , बर्मा में । उपसंहार में लेखिका ने लिखा है कि उन्होंने पाठकों को एक संक्षिप्त झलक दिखने का कार्य ही पूरा किया है क्योंकि भारतीय संस्कृति अत्यंत व्यापक है और उसमें प्रस्तुत करने योग्य सामग्री भी बहुत बड़ी है।
इस पुस्तक कि वैशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि लेखिका ने एक बहुव्यापक और महत्वपूर्ण विषय पर चित्रों और पाद -टिप्पणिओं के सन्दर्भों की सहायता से , पर्याप्त प्रकाश डाला है ।वे बधाई की पात्र हैं । समीक्षक की राय में , यह पुस्तक, अध्यापकों , विद्यार्थियों , पत्रकारों , प्रशासकों , मीडिया प्रबंधकों आदि के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।
-------Reviewer (समीक्षक) vijaiksharma





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