Thursday 3 August 2017

राजस्थानी लोक साहित्य

राजस्थानी लोक साहित्य --नानू राम संस्कर्ता, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर , संस्करण वर्ष २०००, पृष्ठ २५०, मूल्य रुपये ३००/=
समीक्षा (Review):
विश्व के प्रत्येक क्षेत्र के जनमानस के योगदान से बने साहित्य की, एक अलग ही छबि होती है . राजस्थानी लोक साहित्य का आज का खज़ाना , सदियों के ऐसे ही योगदान का नतीजा हैI महत्वपूर्ण बात यह है कि लोक साहित्य, समय के साथ कमजोर या लुप्त नहीं हुआ , बल्कि वह , वृद्धि के साथ दृढ़तापूर्वक विद्यमान है, लेखक ने इस पुस्तक के ९ अध्यायों में लोक समीक्षण , लोकगीत, लोकगाथा, लोक कहावते , पहेलियाँ, बाल लोक साहित्य जैसे विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है.
पुस्तक के अध्याय १,२ और ३ में लोक साहित्य के महत्व , संबधित संस्थानों की जानकारी, लोक संगीत, वाद्य , लोक संस्कृति और लोक गीतों पर चर्चा की गई है, लेखक ने विभिन्न स्थितियों के गीतों के अनेक उदहारण दिए है, जिनको पढ़ कर मन बाग बाग हो जाता है, अध्याय ४, ५ और ६ में बताया गया है कि राजस्थानी लोक कहानियों का कुछ न कुछ तो अभिप्राय होता है और कहावतों की अपनी ही गरिमा है और सामान्यतया उनका काफी प्रयोग होता है . साथ ही पहेली जैसे रोचक विषय और लोक प्रवाद (वार्तालाप) पर विभिन्न उदाहरणों से पाठको को आनंदित करने का प्रयास किया गया है.
अध्याय ७, ८ और ९ में बाल लोक साहित्य, बालक और बालिकाओं के खेल, कहानियों के उदाहरण और गीत, मनोरंजन के क्षेत्र में, संगीत, नृत्य और नाटक के अलावा , कठपुतली , नट , मदारी के योगदान, लोक प्रचलित तथ्यों , सिद्ध पुरुषों, संतो, वीरों , सतीमाताओं , शक्ति माताओ , राजस्थान के अंधविश्वास , शकुन, जादूटोना, मन्त्रमूठ पर चर्चा की गई है.
पुस्तक में अनुक्रम, पुस्तक के बारे में, और लेखक की ओर से, यथास्थान दिए गए हैं । पुस्तक में कुल ५१ पाद टिप्पणिओं द्वारा सन्दर्भ दिए गए हैं या कुछ बातो को स्पष्ठ किया गया है ।पुस्तक के आवरण के अभिकल्पन तथा रंगो के चुनाव से आवरण सुन्दर लगता है। परन्तु पुस्तक में छपाई की कुछ त्रुटियां भी नज़र आई है। कुछ शब्द बगैर हिंदी अनुवाद के भी लिखे गए है ।
इस पुस्तक की विशेषता यह है कि लेखक ने लोक साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए लोक गीतों , कहावतों, पहेलियों ओर कथाओं के माध्यम से इसे काफी रोचक बनाया है लेखक ने इसे राजस्थानी लोक साहित्य के संक्षिप्त विश्वकोष की संज्ञा दी है। कुल मिलाकर यह एक समायोजित प्रयास है । यह पुस्तक राजस्थानी भाषा के प्रेमियों, पाठकों , विद्यार्थियों, शिक्षकों और शोधकर्ताओं के लिए अवश्य उपयोगी सिद्ध होगी ।
-------Reviewer (समीक्षक ) vijaiksharma




राजस्थानी लोक साहित्य एवं संस्कृति

राजस्थानी लोक साहित्य एवं संस्कृति --डॉक्टर नन्द लाल कल्ला , राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, पृष्ठ १३४, मूल्य रुपये १५०/=, संस्करण २०००
समीक्षा (Review):
राजस्थान एक अलौकिक प्रदेश है जिसमें एक ओर रेत के विशाल टीले हैं तो दूसरी ओर हरे भरे जंगल , कहीं पर पर्वत श्रंखला है तो कहीं दूर दूर तक समतल जमीन, जिसमे जंगली झाड़ियों के अलावा और कुछ नहीं । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों के लोगों के रहन सहन के तरीके भी अलग अलग है। उनकी भाषाएँ भी अलग अलग हैं परन्तु उनमें अनुपम सी मिठास है। राजस्थानी लोक संगीत, लोक कथा, लोक साहित्य सभी निराले है, सबसे हट कर हैं और उनमें अपना एक आकर्षण है जो जनमानस को अपनी ओर बरबस खींच लेता है ।राजस्थान में एक कमी जरूर है वह है जल की परन्तु प्रेमभाव में कहीं कमी नहीं। लोकगाथाएँ , लोक साहित्य और लोकगीत, समय के बीतने के साथ लुप्त नहीं हुए और वे आज भी उतने ही मजबूत हैं, और आगे और सशक्त होंगे , इसमें कोई शक नहीं ।
इस पुस्तक के लेखक डॉक्टर नन्द लाल कल्ला , जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
के हिंदी विभाग में सह-आचार्य हैं। विद्वान् लेखक ने अपनी इस पुस्तक के सात अध्यायों में , राजस्थान के लोक-साहित्य और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
लोक गीतों में मानव के विभिन्न भाव, राग के रूप में प्रकट होते हैं और इनका दायरा विशाल होता है ।ये, मानव जीवन के सुख और दुख , सभी को दर्शाते हैं।अध्याय १ में , यह चर्चा करते हुए, लेखक मोटे तौर पर , लोक गीतों का आठ भागों में वर्गीकरण करते हैं ।विभिन्न अवसरों के लोकगीतों के उदाहरणों से , पुस्तक में एक जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय २ में राजस्थानी लोककथाओं के बारे में बताया गया है कि इनका विकास , मौखिक परंपरा में हुआ है ।ये छोटी भी होती और लम्बी भी होती हैं।इनमें असंभव बातों का समावेश भी होता है और इनका अंत सुखमय होता है। लेखक ने ,मोटे तौर पर इनका ११ वर्गों में वर्गीकरण किया है।राजस्थानी लोक गाथा विषय है अध्याय ३ का।इनका अपना ही विशेष स्थान है ।इनमें लोक प्रचलित जान भाषा का प्रयोग होता है।इनमें इतिहास , कल्पना, वीर , श्रृंगार एवं करुण रस का समावेश होता है और वचन पालन की परंपरा का निर्वाह होना बताया जाता है ।लेखक ने मोटे तौर पर इनका पांच वर्गों में वर्गीकरण किया है ।पुस्तक में तीन प्रमुख लोक गाथाओं , पाबू जी री, तेजा जी की और बगड़ावत जी की लोक कथाओं का सार दिया गया है ।
अध्याय ४ में लोक देवी देवता एवं लोकोत्सव पर चर्चा कि गई है। राजस्थान में कई लोकदेवता हुए हैं जिन्होंने जनहित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। बाबा रामदेव जी और तेजा जी समेत १५ लोक देवताओं के बारे में और इसी तरह कैला देवी. जीणमाता और करणीमाता समेत कुल ९ लोक देवियों के बारे में संक्षिप्त में बताया गया है ।उत्सव, त्यौहार और मेले , काफी समय से चले आ रहे हैं, लेखक ने इनमें से रामनवमी, रक्षाबंधन, दशहरा,दीपावली और होली समेत कुछ २४ त्यौहारों का संक्षिप्त वर्णन किया है। इनके अलावा अन्य मेलों में पुष्कर मेला, रामदेवरा मेला, अजमेर शरीफ का उर्स समेत ९ मेलों का वर्णन किया गया है ।अध्याय ५ में बताया गया है कि राजस्थानी लोक नाट्य , एक दृश्य और सशक्त माध्यम है और इसमें जाति-सम्प्रदाय का भेदभाव नहीं होता है ।मोटे तोर पर लेखक ने राजस्थानी लोक नाट्यों को चार भागों में वर्गीकृत किया है ।स्वांगों के रूप और प्रकार, ख्यालों की परंपरा तथा उनके रूप के बारे में भी बताया है ।लोक नाट्यों की विभिन्न शैलियों पर चर्चा करते हुए वाद्य यंत्रों, वेशभूषाओं और बोलियों के बारे में, विस्तार से बताया गया है.
अध्याय ६ में लोक कला, लोक संगीत, वाद्य एवं लोक विश्वास पर चर्चा की गई है. लोक कला में आँगन , भीत , शरीर के अंग, वस्त्र, बर्तन या अस्त्र शास्त्र पर मांडने की परंपरा बहुत ही पुरानी है । लोक नृत्य राजस्थानी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसमे १८ प्रकार के मुख़्य वाद्यों का प्रयोग होता है ।घूमर और गरबा समेत सात प्रकार के नृत्यों का वर्णन किया गया है ।कालबेलिओं के नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। लोक विश्वास और मान्यताओं पर लिखते हुए शकुन जैसे दिलचस्प विषय पर शुभ और अशुभ की काफी चर्चा की गई है ।राजस्थानी संस्कृति के बारे में अंतिम अध्याय ७ में लेखक ने इस संस्कृति के दो पहलुओं, भौतिक सौंदर्य और आभ्यंतर सौंदर्य के बारे में लिखते हुए बताया है कि राजस्थानी लोक संस्कृति, अपनी सतरंगी इंद्रधनुषी छटा चहुँ ओर बिखेरती है ।
हालाँकि राजस्थानी संस्कृति पर अनेक लेखकों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं, परन्तु इस पुस्तक की विशेषता यह है कि विद्वान लेखक ने मूलभूत बातें बताते हुए , लोकगाथाओं के साथ , रूचिकर बनाते हुए , पाठकों को राजस्थानी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया है ।समीक्षक की राय में , यह पुस्तक , लोक साहित्य के पाठकों , शोधकर्ताओं , विद्यार्थियों और शिक्षकों आदि के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।

------------Reviewer (समीक्षक ) vijaiksharma

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति -डॉक्टर प्रीतिप्रभा गोयल, राजस्थIनी ग्रंथागार, जोधपुर, पृष्ठ ३७५, मूल्य रुपये ४००/= प्रकाशन जुलाई 2000
समीक्षा (Review):
किसी भी राष्ट्र के निवासियों के लिए, उनके जीवन और रहन सहन की परंपरा ही संस्कृति है और इनके लिए अपनी संस्कृति का बड़ा महत्व है। इसी क्रम में भारतीय संस्कृति के रूप में हमारी परंपरा की , जो सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही है , अपनी ही शान है। प्रत्येक भारतीय को इस पर गर्व है और हो भी क्यों नहीं । हमारा नारा "मेरा भारत महान है ", ऐसी अनुपम संस्कृति की महानता का द्योतक है । संस्कृति के विभिन्न पहलू होते हैं और उन सभी का अलग अलग महत्व है ।भारतीय संस्कृति की ताकत इसी बात से आंकी जा सकती है कि अनेकों प्रतिकूल प्रभाव के प्रयासों के बावजूद ,भारतीय संस्कृति अडिग रही और इसमें कोई शक नहीं कि यह अडिग रहेगी ।
इस पुस्तक की लेखिका डॉक्टर प्रीतिप्रभा गोयल , जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के संस्कृत विभाग की सहाचार्या तथा निदेशिका के . ए्न. कॉलेज (सेवा निवृत ) हैं. इसमें कोई शक नहीं कि विद्वान लेखिका ने अपनी इस पुस्तक के १३ अध्यायों में भारतीय संस्कृति के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है ।
अध्याय एक में संस्कृति की परिभाषा से आरम्भ करते हुए . हमारे देश में व्याप्त एकता के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए, भारतीय संस्कृति की १५ विशेषताओं का उल्लेख किया गया है , जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है विश्व बंधुत्व की भावना। सभी संस्कृतियों में समाज का वर्णों में विभाजन किया गया है। भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था का वर्णन , अध्याय २ में किया गया है। सामान्तया वर्ण से , मनुष्य के गुणों का बोध होना चाहिए ।वर्णोत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत , इतिहास के विभिन्न कालों में वर्ण व्यवस्था और वर्णो के , विशेषाधिकार के बारे में इसमें चर्चा की गई है। अध्याय ३ का विषय है आश्रम व्यवस्था , जो भारतीय संस्कृति की एक अभूतपूर्व और प्राचीन परिकल्पना है । इस बारे में ऐतिहासिक क्रम बताते हुए , लेखिका ने चार आश्रमों के बारे में विस्तार से बताया है । संस्कार की किसी भी सभ्यता में ऐसी व्यवस्था नहीं है।
हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है संस्कारों का पालन । कुल १८ संस्कार बताये गए है जो पांच भागों में बांटे जा सकते हैं , जन्म से पूर्व के संस्कार, शिशु के संस्कार, शिक्षा सम्बन्धी संस्कार, विवाह , अंत्येष्टि । सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह का है। विवाह की आवश्यकता, अनिवार्यता , उद्देश्य ,विवाह के विभिन्न प्रकार , विवाह में चयन और निषेध आदि के बारे में अध्याय ४ में बताया गया है । अध्याय ५ में प्राचीन भारत में शिक्षा की स्थिति , प्रयोजन, विशेषताएं , शिक्षाकाल अवधि, शिक्षण प्रणाली , शिक्षण अवधि , शिष्य के कर्त्तव्य तथा गुरु शिष्य संबंधों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। किसी भी समाज में स्त्री और पुरुष का समान महत्व होता है ।स्त्री के बिना पुरुष अपूर्ण है ।प्राचीन भारत के विभिन्न कालों में नारी की स्थिति के बारे में अध्याय ६ में बताया गया है.
प्राचीन भारत में सामाजिक और धार्मिक दशा के बारे में अध्याय ७ में वर्णन किया गया है ।विभिन्न कालों में वर्ण, आश्रम, नारी का स्थान, आहार वसन और आभूषण, मनोरंजन, परिवार आदि के बारे में स्थिति का वर्णन किया गया है ।अध्याय ८ में प्राचीन भारत में आर्थिक और राजनैतिक जीवन के बारे में बताया गया है । विभिन्न कालों में जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक धन अर्जित करने के बारे में बताया गया है ।विभिन्न पहलुओं जैसे कृषि , पशुपालन, व्यापर, वाणिज्य, व्यवसाय एवं उद्योग, गृहनिर्माण , आवागमन के साधनों पर चर्चा की गई है, साथ ही राज्य के शासन के सम्बन्ध में, विभिन्न कालों की स्थिति , केंद्रीय शासन को विभागों में बाँटना , पदाधिकारियों की नियुक्ति , दंड व्यवस्था आदि के बारे में बताया गया है । अध्याय ९ में प्रमुख भारतीय धर्मों , जैसे बौद्ध धर्म , जैन धर्म, वैष्णव धर्म और शैव धर्म के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है. वांग्मय शीर्षक है अध्याय १० का ।प्राचीन भारतीय साहित्य का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है । वैदिक साहित्य को चार उपखंडों में बाँटा जा सकता है जिसमे चारों वेद , उपनिषद आदि शामिल हैं। लौकिक साहित्य में महाकाव्य , खण्डकाव्य , मुक्तक काव्य, कथा, आख्यायिका तथा निबंध शामिल है । मेघदूत, वासवदत्ता, कादंबरी, पंचतंत्र, हिपोदेश आदि प्रसिद्ध हैं।
भारतीय दर्शन के बारे में बताया गया है अध्याय ११ में । हालाँकि अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ विकसित हुई , परन्तु उनके मूल विषय लगभग एक जैसे हैं। इस अध्याय में न्यायदर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, मीमांसा दर्शन , वेदांत दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, चार्वाक दर्शन, पर चर्चा की गई है । अध्याय १२ में भारतीय कला की विशेषताएं बताई गई हैं और वैदिक युग, मौर्य युग, शुंग, कुषाण , साववाहन युग , गुप्त युग, मध्य युग में कला की स्थिति और विकास के बारे में विस्तार से बताया गया है । अंतिम अध्याय १३ में लिखा गया है कि किस तरह भारतीय संस्कृति भारत की सीमाओं को पार कर विभिन्न देशों में प्रसारित की गई जैसे श्री लंका , मध्य एशिया , चीन, कोरिया, जापान, फिलीपींस द्वीप , तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया , फ़नान, कंबुज, चंपा, मलाया द्वीप समूह , जावा, बाली, बोर्निओ, स्याम (थाईलैंड) , बर्मा में । उपसंहार में लेखिका ने लिखा है कि उन्होंने पाठकों को एक संक्षिप्त झलक दिखने का कार्य ही पूरा किया है क्योंकि भारतीय संस्कृति अत्यंत व्यापक है और उसमें प्रस्तुत करने योग्य सामग्री भी बहुत बड़ी है।
इस पुस्तक कि वैशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि लेखिका ने एक बहुव्यापक और महत्वपूर्ण विषय पर चित्रों और पाद -टिप्पणिओं के सन्दर्भों की सहायता से , पर्याप्त प्रकाश डाला है ।वे बधाई की पात्र हैं । समीक्षक की राय में , यह पुस्तक, अध्यापकों , विद्यार्थियों , पत्रकारों , प्रशासकों , मीडिया प्रबंधकों आदि के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।
-------Reviewer (समीक्षक) vijaiksharma